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गांव में घूमकर दो लड़के ढूंढे, दोनों की शादी कराई:एक को दूल्हा, दूसरे को दुल्हन बनाया, वरमाला-फेरे हुए; बांसवाड़ा में 600 साल पुरानी परंपरा

Banswara
गांव में घूमकर दो लड़के ढूंढे, दोनों की शादी कराई:एक को दूल्हा, दूसरे को दुल्हन बनाया, वरमाला-फेरे हुए; बांसवाड़ा में 600 साल पुरानी परंपरा
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आधी रात पूरे गांव में घूमकर पहले दूल्हा ढूंढा गया। इसके बाद दुल्हन के लिए भी लड़के की ही तलाश की गई। तलाश पूरी होने के बाद दोनों लड़कों को सजा-धजाकर शादी के मंडप में ले जाया गया और पूरे विधि-विधान से दोनों की शादी करा दी गई। इसमें फेरे भी हुए और इसके बाद बैलगाड़ी में बैठाकर पूरे गांव में बिनौला भी निकाला गया। बांसवाड़ा के बड़ोदिया गांव में यह अनोखा आयोजन किया गया।

बड़ोदिया के लक्ष्मीनाराण मंदिर में दूल्हे को तैयार करते हुए।
बड़ोदिया के लक्ष्मीनाराण मंदिर में दूल्हे को तैयार करते हुए।

दूल्हा-दुल्हन लड़कों को घर से उठाया, 'फेरे' कराए

बुधवार देर रात बड़ोदिया गांव के मुखिया नाथजी गोयल और संत विवेकानंद महाराज के नेतृत्व में दूल्हे-दुल्हन की तलाश की गई। पहले एक घर से दूल्हा उठाया गया। इसके बाद दुल्हन के लिए भी एक बच्चे को उसके घर से लिया गया। दोनों को जयकारे लगाते हुए, ढोल-नगाड़ों की धुन पर लक्ष्मीनारायण मंदिर लाया गया।

दोनों लड़कों जिनकी उम्र 10 से 13 साल के बीच है, तिलक लगाकर विधि विधान से दूल्हा और दुल्हन की तरह तैयार किया गया। दूल्हे को साफा और शेरवानी पहनाई गई। दुल्हन को ओढ़नी ओढ़ाकर तैयार किया। इसके बाद उन्हें मंदिर के चौक में बने मंडप में ले जाया गया और हिंदू रीति रिवाज से शादी कराई गई। दोनों ने एक दूसरे को वरमाला पहनाई और अग्नि के फेरे लेकर विवाह की रस्में निभाईं।

बड़ोदिया गांव में दूल्हा-दुल्हन की वरमाला।
बड़ोदिया गांव में दूल्हा-दुल्हन की वरमाला।

इसके बाद दोनों को बैलगाड़ी में बैठाकर पूरे गांव में बिनौला निकाला गया। इसमें बड़ी संख्या में लोग शामिल हुए और नाचते गाते गैर डांस करते हुए चले।

​​​​​600 साल से चली आ रही अनोखी शादी की परंपरा

सवाल यह है कि दो बच्चे जिनकी उम्र 10 से 13-14 साल के बीच है, दोनों लड़के हैं, उनकी शादी कस्बे के बड़े बुजुर्ग आखिर क्यों कराते हैं?

सवाल को लेकर गांव में रहने वाले शिक्षक विनोद पानेरी बताते हैं- बड़ोदिया गांव को बाबा (संत) का गांव कहा जाता है। कहा जाता है कि यह कस्बे के लोग दो-तीन बार विस्थापित हुए। सबसे पहले इसकी बसावट जागेश्वर महादेव मंदिर के आसपास थी। दूसरी बार यह सुनवासिया रोड की तरफ बसा।

तीसरी बार वर्तमान में जो बड़ोदिया गांव नजर आता है, यह बसा। यहां सबसे पहले पटेल समाज के खेर वर्ग के लोग आए थे, उन्होंने पहली बार बड़ोदिया बसाया था। लेकिन न तो उनकी समृद्धि हो सकी और न वंश वृद्धि हुई। संतान किसी न किसी कारण जी नहीं पाती थी।

ऐसे में एक संत ने उन्हें उपाय बताया। वंश वृद्धि और संतान के चिरायु होने के लिए होली से एक दिन पहले दो लड़कों (जिनकी शादी और जनेऊ संस्कार न हुआ हो) की विधि विधान से शादी कराई जाए। यह टोटका करने से संतति लंबे समय तक जीवित रहेगी और परिवार फलेगा-फूलेगा। इस बार बड़ोदिया के मुखिया नाथजी भाई पटेल के नेतृत्व में यह परंपरा निभाई गई।

शादी में कोई बाधा बने तो सामाजिक बहिष्कार

बड़ोदिया के संत विवेकानंद महाराज का कहना है- हमने इस परंपरा के बारे में अपने बुजुर्गों से सुना है। शादी की इस अनोखी रस्म में पूरा समाज शामिल होता है। अगर कोई इस रस्म का विरोध करता है या शादी के लिए बच्चा सौंपने से इनकार कर देता है तो सामाजिक बहिष्कार की भी व्यवस्था है, लेकिन यह उतनी कठोर नहीं है।

इनकार करने वाले परिवार में जब कोई बच्चा पैदा होता है और होली पर पहली ढूंढ पूजा के दौरान जब पूरे गांव के लिए पापड़ी भोज का आयोजन करता है तो गांव के लोग इस भोज का बहिष्कार कर देते हैं।

दूल्हा-दुल्हन के लिए ऐसे बच्चों की तलाश जिनका जनेऊ संस्कार न हुआ हो

बांसवाड़ा के बड़ोदिया गांव के शिक्षक कोदर सिंह सोलंकी बताते हैं- रस्म के लिए 9-10 से 13-14 साल के लड़कों को चुना जाता है। अगर बच्चों का यज्ञोपवीत (जनेऊ) संस्कार हो चुका है तो ऐसे बच्चों को दूल्हा दुल्हन नहीं बनाया जाता। यह सब कुछ होली के आनंद और खुशहाली के लिए किया जाता है।

वैष्णव समाज के लोग मंदिर चौक पर जुटते हैं। ढोलकी की थाप पर गैर डांस करते हैं। आधी रात मुखिया के नेतृत्व में दूल्हा-दुल्हन की तलाश और गेरियों का घूम-घूमकर डांस करना काफी रोमांच पैदा करता है।

सारी रस्मों के दौरान चलती है मौज मस्ती

विवाह के लिए बच्चों को तलाश करने का काम काफी रोचक होता है। मुखिया के नेतृत्व में गैर नर्तकों की टोली ढोल की थाप पर नाचते गाते चलती है। शादी के लिए दो योग्य बालकों की तलाश में घर-घर दस्तक दी जाती है। भूले-भटके गांव में घूमते किसी भी बच्चे को उठाया जा सकता है।

जो बालक पहले मिलता है वह दूल्हा बनता है। ऐसे में बच्चों में भी इस रस्म को लेकर काफी रोमांच होता है। दूल्हा मिलने पर आस-पास के बच्चे चिल्लाकर खुशी का इजहार करते हैं और साथी दूल्हे के साथ दुल्हन की तलाश में चल पड़ते हैं। इसके बाद दुल्हन को भी इसी तरह ढूंढा जाता है।

शादी के बाद दोनों को गांव के बुजुर्गों और संत विवेकानंद ने आशीर्वाद दिया।
शादी के बाद दोनों को गांव के बुजुर्गों और संत विवेकानंद ने आशीर्वाद दिया।

लक्ष्मीनारायण मंदिर के चौक पर शादी की रस्में होती हैं। बाकायदा मंडप, हवन वेदिका तैयार की जाती है और मंत्रोच्चार के साथ पंडित फेरे कराते हैं। इस दौरान गेरिये लगातार शादी विवाह के गीत गाते हैं और नाचते हैं। फेरों के बाद बिनौला (शोभायात्रा) में भी कस्बे के लोग नाचते गाते शामिल होते हैं।

इसके बाद बनौला वर-वधू के घर पहुंचता है और बिनौले में शामिल लोगों को शादी की मिठाई के रूप में नारियल और शक्कर से बनी मिठाई खिलाई जाती है।

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