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Mavji Maharaj

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    , Banswara, Rajasthan
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वह कौन सी शक्ति रही होगी, जिसने 18वीं शताब्दी में वागड़ क्षेत्र के एक निर्धन कृषक ब्राह्मण के इकलौते पुत्र “मावजी” के रग-रग में कृष्ण भक्ति का जोग रमा दिया| माही, सोम एवं जाखम सरिताओं का पवित्र त्रिवेणी संगम “बेंणवृन्दावन धाम” (बेणेश्वर) मावजी की साधना व रास रमण स्थली का मुख्य केंद्र बना, जहाँ तत्कालीन शिष्य साहित्यकारों ने बागड़ी, गुजराती शब्द रचनाओं के माध्यम से कृष्ण भक्ति गीत विविध रागमालाओं की स्वर लहरियों से “महारासलीला” जैसे पाँच बड़े ग्रंथो की रचना की, तो दूसरी ओर इसी क्रर में तत्कालीन चित्रकारों ने ग्रंथो में वर्णित गोविन्द गीतों की चाक्षुष-अभिव्यंजना के लिए कतिपय विशिष्ट चित्रांकन विधाओं का अनुसरण कर कृष्ण की बाल क्रीडाओं, रासलीलाओं को मेवाड़ कलम का पुट देते हुए “वागड चित्र शैली” का नवीन सुजन किया जो की राजस्थान की विविध चित्र शैलियों के बेजोड़ उदाहरणों में से एक है|

साहित्य, संगीत और कला से अलंकृत अद्वितीय से सचित्र ग्रंथ ब्रज प्रदेश की श्रीकृष्ण जन्म व रास रमण स्थली मथुरा, गोकुल वृन्दावन, गौवर्धन तथा भागवत पूराण के साहित्य की ताज़ी स्मृति दिलाते हैं| भगवान श्री कृष्ण के अनन्य भक्त एवं इस प्रदेश के कृष्ण भक्ति धारा को प्रवाहित करने वाले “मानमनोहर” कृष्ण स्वरूप श्री मावजी को वाग्वरांचल का समस्त मावजी भक्त समुदाय शत्त-शत्त नमन करता है|


श्री मावजी का जन्म डूंगरपुर जिले के साबला नामक ग्राम में संवत् 1771 माघ सुदी 5 पंचमी (28 जनवरी 1715 ई.) शुक्रवार को “श्री दालम” नामक ब्राह्मण की मार्या “केसर बाई” की कोख से हुआ |

कौन जानता था कि 18वीं शताब्दी में निर्धन ब्राह्मण के घर जन्मा यह ऋषि-पुत्र वागड की भूमि पर भगवान श्री कृष्ण की तरह लीलाएँ करेगा| बालक मावजी कृष्ण भक्ति में रम गया| श्री कृष्ण के गुण भरे स्वरचित भक्ति के गीत-बाँस की बनी बांसुरी के मधुर स्वरों से बेणेश्वर स्थल के वीरान जंगलो को आनन्दित करता रहा| गाय-भैंसों को चराने वाले इस बालक को कृष्ण भक्ति में खोये देखकर स्थानीय लोग इन्हें “पागल पन का सवार” समझने लगे|

जब मावजी ने इस क्षेत्र में वैष्णव धर्म की धारा को प्रवाहित करना प्रारम्भ किया तो इनकी चमत्कारिक प्रतिभा को देखकर ईस क्षेत्र की जनता उन्हें अपनाने लगी| लोग इनके शिष्य व भक्त बन गये| मावजी ने एक नया पंथ स्थापित किया जो “महाराज पंथ” के नाम से जाना जाता है| वाग्वरांचल, मेवाड़ एवं गुजरात में जगह-जगह महाराज पंथ के शिष्य व भक्त बने| माव मनोहर समूचे क्षेत्र में वैष्णव भक्ति धारा को प्रवाहित करने व हिन्दू-संस्कृति के प्रचार-प्रसार का एक सूत्रपात बन गया| लोग मावजी को देवता स्वरूप मानने लगे| मावजी स्वंय को निष्कलंक अवतार मानते थे, अत: शिष्य समुदाय भी मावजी को निष्कलंक भगवान मानने लगे| समूचे वागड प्रदेश में जगह-जगह उनके मन्दिर स्थापित हुए, जिसमे निष्कलंक भगवान की चतुर्भुज मूर्तियां स्थापित हुई, जो आज भी इसी रूप में पूजनीय हैं|

विशिष्ठ प्रतिभा के धनी, भगवान श्री कृष्ण के अनन्य भक्त संत मावजी-साहित्य, कला तथा भविष्यवेक्ता, ज्योतिष एवं खगोलविद भी थे| उन्होंने अपने समय में अनेक भविष्यवाणीयाँ की थी जिन्हें तत्कालीन शिष्य समुदाय ने लिपिबद्ध किया| ये भविष्यवाणीयाँ आज सत्यता का प्रमाण साबित हो रही हैं| यही नहीं उनके स्वरचित कृष्ण भक्ति के पदमय गोविन्द गीत, विभिन्न रागमालाओं में गाये जाने वाले कीर्तनों को भी लिपिबद्ध किया गया हैं| भगवान श्री कृष्ण की अनेक रासक्रीडाओं, लीलाओं, गोप-गोपियों के संवाद, विरह व राधा-कृष्ण का प्रेम-मिलन आदी अनेक प्रसंगो को भी शिष्य समुदाय ने लिपिबद्ध किया, साथ ही प्रसंगानुसार कृष्ण रासलीलाओं से सम्बंधित अनेक लघुचित्रों को मावजी कालीन ग्रंथो में चित्रित किया है|

18वीं शताब्दी में रचित इन ग्रंथो की तुलना भागवतपुराण व गीतगोविन्द से की जा सकती है| वागड प्रदेश की वागडी भाषा (स्थानीय लोक-वाणी) कतिपय गुजराती, संस्कृत शब्दों का प्रयोग करते हुए देवनागरी लिपि के सुंदर अक्षरानकनों व लघु चित्रों से संस्कृत और सुसज्जित इन विशाल ग्रंथो की रचना हुई|
बेणेश्वर स्थल मावजी के इन ग्रंथो की रचना व साधना का मुख्य केंद्र बना| आज बेणेश्वर, “वेण वृंदावन-धाम” के रूप में परम तीर्थ बन गया है|

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