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हिंदी देश की राजभाषा, अभी तक किसी भी भाषा को राष्ट्रभाषा का दर्जा नहीं मिला

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हिंदी देश की राजभाषा,  अभी तक किसी भी भाषा को राष्ट्रभाषा का दर्जा नहीं मिला
@HelloBanswara - National -

दुनिया के ज्यादातर देश की अपनी राष्ट्रीय भाषा है जैसे यूनाइटेड किंगडम और अमेरिका में अंग्रेजी Language बोली जाती है और ये देश अपने सभी काम अपनी अंग्रेजी लैंग्वेज में ही करते है। वैसे इंडिया के ज्यादातर लोग हिंदी को राष्ट्रीय भाषा मानते है क्योंकि हिंदी हिन्दुस्तान के अधिकतर लोगो द्वारा बोली जाती है लेकिन यह सत्य नहीं है। ऐसा हम क्यों कह रहे है किसी भी देश की संस्कृति में भाषा का भी अहम योगदान होता है क्योंकि इसी से लोग अपनी संस्कृति को आगे बढ़ा पाते है। भारतीय संविधान में भारत की राष्ट्रभाषा का कोई उल्लेख नहीं है। इसका मतलब यह हुआ कि भारत की कोई राष्ट्रभाषा नहीं है। 


हिंदी को लेकर संविधान सभा में क्या-क्या कहा गया था

देश के गृह मंत्री अमित शाह ने हिंदी को लेकर हाल ही में उन्होंने कहा था कि हिंदी को अंग्रेजी के विकल्प के रूप में स्वीकार किया जाना चाहिए. शाह ने कहा था कि राजभाषा को देश की एकता का एक महत्वपूर्ण अंग बनाने का समय आ गया है और जब अलग-अलग भाषाएं बोलने वाले राज्यों के लोग आपस में बात करते हैं, तो ये अंग्रेजी की जगह हिंदी भाषा में होना चाहिए.

अमित शाह के इस बयान पर विपक्ष ने कड़ी प्रतिक्रिया दी थी. देश की मुख्य विपक्षी पार्टी कांग्रेस ने बीजेपी के ऊपर सांस्कृतिक आतंकवाद का आरोप लगाया था. वहीं टीएमसी की तरफ से कहा गया था कि पार्टी हिंदी का सम्मान करती है, लेकिन इसे थोपने का विरोध करती है. वहीं कभी बीजेपी की सहयोगी रही शिवसेना ने शाह के बयान को क्षेत्रीय भाषाओं के मूल्य को कम करने का एजेंडा बताया था. डीएमके की तरफ से भी कहा गया था कि अमित शाह का बयान भारत की अखंडता और बहुलता के खिलाफ है.

संविधान सभा की बहस

इस मुद्दे पर लंबी बहसों का इतिहास है. संविधान के प्रबल समर्थक कहते रहे हैं कि भारत एक विविधता वाला देश है. यहां हर राज्य की अपनी अलग सांस्कृतिक पहचान है. इसलिए देश की कोई राष्ट्रभाषा नहीं है. भारत के संविधान में किसी भी भाषा को राष्ट्रभाषा का दर्जा नहीं मिला हुआ है. इसमें 22 भाषाओं को आधिकारिक दर्जा दिया गया है, जिनमें अंग्रेजी और हिंदी शामिल हैं. हिंदी को राजभाषा का दर्जा 14 सितंबर 1949 को मिला था. उसी दिन से हम उस दिन को हिंदी दिवस के रूप में मानते है.

जब बात बहस पर आई है, तो वहीं चलते हैं. 12 से 14 सितंबर 1949 के बीच संविधान सभा में भाषाओं के स्टेटस को लेकर बहस हुई. इस दौरान राष्ट्रभाषा का भी मुद्दा छिड़ा. बहस में संविधान सभा के अध्यक्ष राजेंद्र प्रसाद ने कहा था कि अगर हम किसी प्रस्ताव को बहुमत से पारित कर लेते हैं, लेकिन अगर ये लोगों को पसंद नहीं आता है, तो इसे लागू करना बहुत कठिन होगा.

राष्ट्रभाषा को लेकर संविधान सभा में चल रही बहस के दौरान तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने महात्मा गांधी के विचारों को दोहराया. उन्होंने कहा कि अंग्रेजी एक अच्छी भाषा है, लेकिन कोई भी देश विदेशी भाषा के दम पर महान नहीं बन सकता. उन्होंने कहा कि जो भी भाषा चुनी जाए, वो लोगों की भाषा होनी चाहिए ना कि केवल कुछ चंद पढ़े-लिखे लोगों की. नेहरू ने आगे कहा कि देश की भाषा ऐसी होनी चाहिए, जो यहां की विविधता का प्रतिनिधित्व करे. ये भी कहा कि महात्मा गांधी ने इसलिए ही हिंदुस्तानी भाषा का समर्थन किया है.

वहीं ड्राफ्टिंग कमेटी के सदस्य एन गोपालस्वामी अय्यंगर ने कहा कि देवनागरी लिपि में लिखी जाने वाली हिंदी आधिकारिक भाषा होनी चाहिए, लेकिन अंग्रेजी को कम से कम 15 साल तक प्रयोग किया जाना चाहिए. इधर सेठ गोंविद दास ने बहुत मुखरता से राष्ट्रभाषा के तौर पर हिंदी का समर्थन किया. संविधान सभा की बहस में उन्होंने कहा कि लोकतंत्र तभी चल सकता है, जब बहुसंख्यक लोगों के मत का सम्मान किया जाए. उन्होंने आगे कहा कि भारत एक प्राचीन देश है. हजारों सालों से देश की एक संस्कृति रही है. इसी संस्कृति का सम्मान करने के लिए हम ‘एक देश और एक भाषा’ की मांग कर रहे हैं.

भारत की राष्ट्रभाषा बनने की दौड़ में शामिल भाषाएं

भारतीय संविधान की आठवी अनुसूची में भारत की अधिकारिक भाषाओं का जिक्र किया गया है। जिनमें समय समय पर परिवर्तन देखने को मिला है। संविधान निर्माण के समय 14 भाषाओं को शामिल किया गया था लेकिन इसके बाद साल 1967 में सिन्धी भाषा को अनुसूची में शामिल किया गया। साल 1992 में कोंकणी, मणिपुरी और नेपाली भाषा को शामिल किया गया वर्ष 2004 में बोड़ो, डोगरी, मैथिली और संथाली भाषा को शामिल किया गया था। इस तरह अब तक अनुसूची में 22 भारतीय भाषाओं का शामिल किया गया है।


हिन्दी भाषाकन्नड़ भाषा
असमिया भाषाकोंकणी भाषा
ओड़िया भाषाबंगाली भाषा
डोगरी भाषापंजाबी भाषा
उर्दू भाषाबोड़ो भाषा
कश्मीरी भाषानेपाली भाषा
गुजराती भाषामराठी भाषा
तमिल भाषामलयालम भाषा
मणिपुरी भाषामैथिली भाषा
संस्कृत भाषासंथाली भाषा
सिन्धी भाषा तेलुगू भाषा


‘मैकाले का भूत हंसेगा’

पश्चिम बंगाल के बड़े नेता नजीरुद्दीन अहमद ने भी अपनी बात रखी. उन्होंने कहा कि एक झटके में राष्ट्रभाषा पर फैसला करना सही नहीं होगा. उन्होंने कहा कि अंग्रेजी का प्रयोग तब तक करना चाहिए, जब तक देश की कोई एक भाषा विकसित नहीं हो जाती. इधर रघुनाथ विनायक धुलेकर ने कहा,

“तुलसीदास से लेकर स्वामी दयानंद और महात्मा गांधी सभी ने हिंदी का प्रयोग किया है. आप भले ही दूसरे देश से हों, लेकिन मैं भारत से हूं, जो एक हिंदी भाषी राष्ट्र है और जहां हिंदू रहते हैं. अगर हम हिंदी की जगह अंग्रेजी का प्रयोग करते रहेंगे, तो मैकाले का भूत हमारे ऊपर हंसेगा.”

श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने कहा कि वो उन लोगों से सहमति नहीं रखते हैं, जो ये कह रहे हैं कि एक दिन भारत में केवल एक भाषा होगी. उन्होंने कहा कि भारत की पहचान विविधता में एकता से है और ज्यादातर लोग हिंदी को इसलिए स्वीकार कर रहे हैं क्योंकि लोगों की एक बहुत बड़ी संख्या में लोग इसे समझते हैं. हालांकि, मुखर्जी ने आगे कहा कि हिंदी के समर्थकों को अपनी मांग को लेकर इतना आक्रामक नहीं होना चाहिए.

श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने हिंदी को थोपे जाने का विरोध जताया था.

संविधान सभा की बहस में शामिल एसवी कृष्णमूर्ति राव ने कहा कि अंग्रेजी को रहना चाहिए. उनकी दलील थी कि दक्षिण की कई भाषाओं के मुकाबले हिंदी बहुत नई है. इसकी और हिंदुस्तानी की बात पूरी तरह से उत्तर भारत तक सीमित है. एक और सदस्य हिफजुर रहमान ने महात्मा गांधी की बात रखते हुए कहा कि हिंदुस्तानी भाषा को प्राथमिकता देनी चाहिए.

एंग्लो-इंडियन समुदाय के बड़े नेता फ्रैंक एंथनी ने कहा कि कई कारणों की वजह से अंग्रेजी इस देश की राष्ट्रभाषा नहीं हो सकती है. हालांकि, उन्होंने कहा कि जिस हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने की बात हो रही है, वो आम लोगों द्वारा बोली जाने वाली भाषा से बहुत अलग है. उन्होंने कहा कि इस हिंदी को थोपना बराबरी के अधिकार का उल्लंघन होगा.

‘एक भाषा मतलब देश की आत्मा पर हमला’

लक्ष्मीनारायण साहू ने भी हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने का समर्थन किया. एनवी गाडगिल संस्कृत के समर्थन में बोले. टीए रामालिंगम ने कहा कि ये बहस दक्षिण भारतीय राज्यों के लिए जिंदगी और मौत का सवाल है. वो हिंदी के प्रति बहुत सम्मान रखते थे, लेकिन इसे राष्ट्रभाषा बनाने को तैयार नहीं थे. रामलिंगम ने कहा कि दक्षिण भारतीय राज्यों के लिए हिंदी उतनी ही राष्ट्रभाषा होगी, जितना कि अंग्रेजी. हिंदी के राष्ट्रभाषा बनने पर दक्षिण के राज्य असंतुष्ट रहेंगे.

इसी तरह और भी नेताओं ने अपने-अपने विचार रखे. मसलन, पीटी चाको ने कहा कि राष्ट्र की भाषा विकसित होती है, इसे जबरन नहीं बनाया जा सकता है. पंडित रवि शंकर शुक्ला ने कहा कि हिंदी लगभग हर जगह बोली जाती है, ऐसे में इसे राष्ट्रभाषा होना चाहिए. अलगू राय शास्त्री और कुलधर चालीहा ने संस्कृत को राष्ट्रभाषा बनाने की बात कही. इसी तरह डॉक्टर पी सुब्बारायन और जी दुर्गाबाई ने हिंदुस्तानी का समर्थन किया. दुर्गाबाई ने कहा कि देवनागरी लिपि में लिखी जाने वाली हिंदी एक क्षेत्रीय भाषा है और इसे राष्ट्रीय भाषा नहीं बनाया जा सकता.

इसी तरह बॉम्बे से आने वाले शंकरराव देव ने कहा कि एक संस्कृति और एक भाषा की बात करना खतरनाक है. उन्होंने कहा कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख और कांग्रेस के कुछ नेता एक संस्कृति की बात करते हैं. लेकिन कोई हमें ये नहीं बताता कि आखिर संस्कृति का मतलब क्या है. शंकरराव ने कहा,

“फिलहाल इसका जो मतलब बताया जा रहा है, वो है कुछ लोगों का बहुत सारे लोगों पर प्रभुत्व. अगर आप एक संस्कृति की बात करते रहेंगे, तो मेरे लिए इसका मतबल भारत की आत्मा की हत्या है. अगर आप पूरे देश के लिए एक भाषा के समर्थक हैं, तो मैं इसके खिलाफ हूं.”

वहीं सरदार हुकुम सिंह ने कहा कि उन्होंने हमेशा हिंदी का समर्थन किया है, लेकिन राष्ट्रभाषा के तौर पर हिंदी को चुने जाने के खिलाफ हैं. ऐसा इसलिए क्योंकि इसका समर्थन करने वाले बुरी तरह से अहसहिष्णु हो गए हैं. इधर मौलाना अबुल कलाम आजाद ने कहा कि वो इस बात से बहुत दुखी हैं कि हिंदुस्तानी का समर्थन इसलिए नहीं किया जा रहा है क्योंकि इसमें उर्दू के शब्द भी आते हैं. उन्होंने कहा कि उर्दू इस देश की भाषा है. जो यहां पर पैदा हुई और यहीं पर पली बढ़ी और अब देश के लाखों हिंदुओं और मुसलमानों की मातृभाषा है.

मुंशी-अय्यंगर फॉर्मूला

ये बहस आगे बढ़ी. संविधान सभा की एक सब कमेटी ने प्रस्ताव दिया कि फारसी या देवनागरी लिपि में लिखी जाने वाली हिंदुस्तानी को राष्ट्रभाषा होना चाहिए और जब तक जरूरत हो, तब तक अंग्रेजी को दूसरी आधिकारिक भाषा के रूप में बनाए रखा जाए. आखिर में मुंशी-अय्यंगर फॉर्मूले से तय हुआ कि हिंदी को राष्ट्रभाषा नहीं बल्कि राजभाषा का दर्जा दिया जाएगा. ये भी तय किया गया कि अगले 15 सालों तक सरकारी कामकाज के लिए अंग्रेजी का प्रयोग किया जाए. इसी फॉर्मूले के तहत संविधान में अनुच्छेद 343 और आठवीं अनुसूची बनी. इसी फॉर्मूले से ये तय किया गया कि भारत के अलग-अलग राज्य अपने हिसाब से कामकाज की भाषा तय कर सकते हैं. हालांकि, अनुच्छेद 351 में कहा गया कि ये सरकारों की जिम्मेदारी है कि वो हिंदी भाषा को इस तरह से प्रमोट करें कि वो भारत की विविधता वाली संस्कृति को आगे बढ़ा पाए.

गोपालस्वामी अय्यंगर. (फोटो: कॉमन प्लेटफॉर्म)

1963 के आते-आते सरकारी कामकाज के लिए अंग्रेजी के प्रयोग का समय पूरा हो गया. ऐसे में अंग्रेजी को हटाने की मांग दोबारा जोर पकड़ने लगी. दक्षिणी राज्यों में इसके खिलाफ हिंसक प्रदर्शन हुए. फिर सरकार ने 1963 में ऑफिशियल लैंग्वेज एक्ट बनाया. इसके तहत हिंदी के साथ अंग्रेजी को राजकीय भाषा के रूप में बरकरार रखने का प्रावधान किया गया. हालांकि, हिंदी को बढ़ावा देने पर जोर दिया गया, लेकिन कोर्ट, विधायी दस्तावेजों और राज्य-केंद्र के बीच संचार की भाषा अनिवार्य रूप से अंग्रेज़ी ही बनी रही. अभी तक ये सिलसिला बरकरार है.

साल 2011 की जनगणना की मुताबिक, देश की 43.6 फीसदी जनसंख्या हिंदी बोलती है और छह फीसदी ग्रोथ रेट के साथ ये देश में सबसे तेजी से बढ़ने वाली भाषा है. हालांकि, इस सेंसस में हिंदी के तहत भोजपुरी, छत्तीसगढ़ी, राजस्थानी और हरियाणवी जैसी पचास मातृभाषाओं और बोलियों को भी शामिल कर लिया गया. इस सेंसस में ये भी पता चला कि जहां एक तरफ कश्मीरी, गुजराती, मणिपुरी और बंगाली बोलने वालों की संख्या में इजाफा हुआ है, वहीं दूसरी तरफ तेलुगु, तमिल, कन्नड़ और मलयालम बोलने वालों की संख्या घट गई.




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