मैं ही क्यों?
आज फिर से 4 लाइन लिखने का मन हो गया, सवाल बहुत थे, जिंदगी मुहं मोड़े हुए थी, फिर अचानक एक सवाल आया मैं ही क्यों?, तो सोचा इसी पर लिख डालूं।
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मैं ही क्यों?
वो काली अंधेरी रात।
वो धूप वो छांव।।
उसे बिन पत्ते के पेड़ के नीचे सिर्फ मैं। मैं ही क्यों? ....
जिंदगी की तरह बरस रहे ये बादल मुझे भीगा रहे थे,
उस पथरीली जमीन पर बिन चप्पल मैं ही क्यों?....
मां के आंचल में, पिता के चेहरे की सलवटों में
जिंदगी के सूने रास्ते पर बस अकेला.... मैं ही क्यों?....
न कोई साथ आया न कोई साथ जाएगा,
जो पाया, जो खोया वो यहीं रह जाएगा,
मैं यहां आया, पर मैं ही क्यों?
जिंदगी के सफर में हम साथ निभाएंगे
ये वादा तो कर डाला पर फिर सोचा, मैं ही क्यों?
एक रात वो भी थी, जब शांत आसमान बोल रहा था
मैं सुन रहा था बाते जिंदगी की, फिर ख्याल आया, मैं ही क्यों?
न जिंदगी बदली न बदला फलसफा
पर बदल गए मायने, खुशी, हंसी और दोस्ताना
न बदला तो खुदगर्ज सा मैं.... पर, मैं ही क्यों?
एक दिन बदलेगा ये मंजर, दुनिया भी देखेगी ....
न कोई दुश्मन होगा न दोस्त, बस हम तस्वीर से बाहर सकते मेरे दोस्त...
तो तेरा हाथ थाम कर कहते, चल फिर सुकून की आगोश में सो जाते हैं।।।।।
Dipesh Mehta
9672999744