धारा 377 (समलेंगिकता)
‘‘क्या है धारा 377’’
Banswara October 30, 2018 भारतीय दंड सहिता (IPC) की धारा 377 के मुताबिक कोई किसी पुरूष, स्त्री या पशुओं से प्रकृति की व्यवस्था के विरूद्ध सम्बन्ध बनाता है तो यह अपराध होगा। इस अपराध के लिए उसे उम्र कैद या 10 साल तक की कैद के साथ आर्थिक दंड का भागी होना पड़ेगा। सीधे शब्दों में कहे तो धारा-377 के मुताबिक अगर दो व्यस्क आपसी सहमति से भी समलैंगिक संबंध बनाते है तो वह अपराध होगा।
‘‘फैसला’’
सुप्रीम कोर्ट की 5 जजों की संविधान पीठ ने 6 सितम्बर 2018 को अपने ऐतिहासिक फैसले में आईपीसी की धारा 377 के उस प्रावधान को रद्द कर दिया जिसके तहत बालिगों के बीच सहमति से समलैंगिक सम्बन्ध अपराध था।
सभी जजों ने अलग-अलग फैसले सुनाए, हालांकि सभी के फैसले एकमत से थे। सर्वोच्च कोर्ट ने एक अहम टिप्पणी में कहा इतने सालों तक समान अधिकार से वंचित करने के लिए समाज को एलजीबीटी समुदाय से माफी मांगनी चाहिए। हालांकि जोर जबरदस्ती वाले समलैंगिक सम्बन्धों व जानवरों के साथ सम्बन्धों को अभी भी अपराध की श्रेणी में रखा गया है।
अतः धारा 377 के एक अंश को ही हटाया गया है। धारा (377) के एक अंश को हटाने के पीछे जो दलीले है, वह इस प्रकार है :-
- आई.पी.सी. की धारा 377 संविधान के अनुच्छेद 14 के तहत मौजूदा रूप में सही नहीं है।
- आई.पी.सी. की धारा 377 गरिमा के साथ जीने के अधिकार का उल्लघंन है।
- यौन रूझान का अधिकार नहीं देने का मतलब है निजता का अधिकार नहीं देना।
- समाज अपनी सहमति से 2 बालिगों के बीच यौन संबंधों पर अपनी मर्जी नहीं थोप सकता क्योंकि ये उनका निजी मामला है।
- भारत ने एलजीबीटी अधिकारों के लिए अंतराष्ट्रीय संधियों पर दस्तख्त किए हैं और उसके लिए इन संधियों के प्रति प्रतिबद्ध रहना जरूरी है।
- यौन रूझान बायोलोजिकल है। इस पर रोक संवैधानिक अधिकारां का हनन है।
- हमें विविधता को स्वीकृति देनी होगी। व्यक्तिगत पसंद को सम्मान देना होगा। एलजीबीटी को भी समान अधिकार है। राइट टू लाइफ उनका अधिकार है और यह सुनिश्चित करना कोर्ट का काम है।
कुछ कथन व वाक्य इस प्रकार है :-
- प्रकृति के नियम के विरूद्ध एक गलत निर्णय इतिहास हमें इस अपराध के लिये कभी क्षमा नही करेगा।
- एलजीबीटी समुदाय को अन्य नागरिकों की तरह समान मानवीय और मौलिक अधिकार है।
- ‘सरकार, मीडिया को सुप्रीम कोर्ट के फैसले का व्यापक प्रचार करना चाहिए ताकि एलजीबीटी समुदाय के सदस्य छिपकर अैर दोयम दर्जे के नागरिकों की तरह जीने को मजबूर नहीं रहे, जबकि बाकी दूसरे लोग अपने यौन रूझान के अधिकार का उपयोग कर रहे हैं।
यह कानून करीबन 150 साल पुराना था (1862) और आज की तारीख मे इस धारा (377) का मतलब मौलिक अधिकारों का हनन है, जो कि कतही जायज नहीं है।
‘‘धारा 377 के सम्बन्धित निर्णयां की समयबद्ध सूची’’ :-
- सन् 1994 में तिहाड जेल में पुरूष कैदियों को कॉन्डम रखने पर प्रतिबंध के बाद एड्स भेदभाव विरोधी आंदोलन नाम के एनजीओ ने दिल्ली हाईकोर्ट में याचिका दाखिल कर आईपीसी की धारा 377 को खत्म करने की मांग की।
- सन् 2001 में नाज फाउंडेशन ने दिल्ली हाई कोई में च्प्स् दाखिल कर 1862 से ब्रिटिश शासनकाल से चले आ रही धारा खत्म करने की मांग की।
- सन् 2004-2008 में हाईकोर्ट ने याचिका खारिज की, ऐक्टिविस्टों ने सुप्रीम कोर्ट का रूख किया, जिसने हाई कोर्ट को फैसले पर पुनर्विचार करने को कहा। केन्द्र सरकार ने अपना पक्ष रखने के लिए और समय की मांग की, स्वास्थ्य मंत्रालय ने विरोधाभासी हलफनामें दाखिल किए। केन्द्र ने गे सेक्स को अनैतिक बताते हुए इसे अपराध ही माने जाने की दलील दी।
- सन् 2009 में दिल्ली हाई कोर्ट ने समलैंगिकता को अपराध की श्रेणी से बाहर किया।
- सन् 2009 से 2012 में कई धार्मिक समूहों और व्यक्तियों ने हाई कोर्ट के फैसले को सुप्रीम को में चुनौती दी।
- दिसम्बर 11.2013 में सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली हाईकोर्ट के 2009 के फैसले को पलटा मसले पर फैसला संसद पर छोड़ा।
- सन् 2015 में लोकसभा ने कांग्रेस सांसद शशि थरूर की तरफ से समलैंगिकता को अपराध की श्रेणी से बाहर करने के लिए लाए गए प्राइवेट मैंबर बिल के खिलाफ वोट दिया।
- फरवरी 2016 में सुप्रीम कोर्ट के 3 जजों की बेंच ने कहा कि सभी याचिकाओं की 5 जजों की संवैधानिक पीठ नए सिरे से समीक्षा करेगी।
- अगस्त 2017 में सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी - सेक्शुअल ओरिएंटेशन (यौन रूझान) किसी भी व्यक्ति का निजी मामला।
- जनवरी 2018 में सीजेआई दीपक मिश्रा की अगुआई वाली सुप्रीम कोर्ट की बैंच ने 2013 के फैसले पर पुनर्विचार का फैसला किया, मामले को बड़ी बैंच में भेजा गया।
- जुलाई 2018 में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि अब यह बेंच के ऊपर है कि वह गे सेक्स पर 150 साल पुराने प्रतिबंध पर क्या फैसला ले।
- 6 सितम्बर 2018 में सुप्रीम कोर्ट ने समलैंगिकता को अपराध की श्रेणी से बाहर किया।
मैं व्यक्तिगत तौर पर समलैंगिक सम्बन्धों से सहमत नहीं हूँ और इस तरह से सोचना मेरा संवेधानिक अधिकार है पर अन्य व्यक्ति अगर इस तरह के संबंध निभाते है तो यह उनका निजता का अधिकार है। संवैधानिक तौर पर उसका में विरोध नहीं करूंगा या कर सकता हूं।
धवल मालोत, मो.नं. 9460263745